भूमिका
विज्ञान को प्रगति जितनी तेजी से हो रही है उतनी ही तेजी के साथ आज
का आधुनिक समाज अनेक रोगों का शिकार होता जा रहा है । रोग एवं रोगियों को
संख्या दिनवदिन बढती जा रही है । इन रोगों की चिकित्सा के लिए जो अंग्रेजी
चिकित्सा पध्दति अपनायी जाती है तो प्राय: खर्चीली होने के कारण सामान्यजनों
के लिए आर्थिक रूप से कठिन समस्या है । इसलिए उन उपचार पध्दतियों का शोध
करना जरूरी है जो सहज उपलब्ध, गुणकारी तथा सस्ती भीहों ।
उपरोक्त पाते ध्यान में रखकर यह तथ्य सामने खाये हैं कि भारतीय संस्कृति
में प्राचीन युग से ऐसी चिकित्सा पद्धतियों उपलब्ध हैं जिनमें वपिति रोर्मानेवारक
औषधियोग प्रकृति में सहजता से उपलब्ध है, साथ ही गुणकारी भी है । .
भारतीय चिकित्सा पध्दतियों में आयुर्वेद एवं सिध्द चिकित्सा पध्दति ऐसे दो
मुक्त प्रवाह है । इसमें भी आयुर्वेद विशेष प्रभावकारी है । इसकी ज्ञानपरम्परा वेदों
से शुरु होकर ब्रहम आदि देवताओं के ज्ञान से परिपूर्ण होकर आज के आधुनिक है
समाज को चिक्खिपा के लिये यह शास्त्र अमृतस्वरुप में उपलब्ध है! आयुर्वेद को हैं
स्वस्थातुरपरायण शास्त्र कहा गया है । इसमें स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को रक्षा करने
के लिए विविध उपक्रम, उदाहरणार्थ दिनचर्या, ऋतुचर्या, सदूवृत्त आदि का वर्णन
किया गया हैं। जिनके अनुपालन से रोग उत्पन्न ही न हों। यह विभाग स्वायत्त
कहलाता है । दृहुंनरा विभाग आतुरवृत्त है, जिसमें रोगी व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिये
विविध चिविक्सीय उपक्रम वपिति है, उदाहरणार्थ शमन, शोधन, पंचकर्म आदि ।
इस चिकित्सा पध्दति में जो औषधियों वर्णित है । उक्ति प्रमुखत: तीन स्रोत बताये
गये हैं । …
१ ) जांगम (Animal Kingdom)
2) औंदूमिज (Plant Kingdom)
३ ) पार्थिव (Minerals)
इन तीनों स्रोतों का समयोग रखने का प्रयत्न भारतीय चिकित्सा पध्दतियों में
किया गया है । साथ ही पर्यावरण संतुलन के लिये इन स्रोतों (जांगम, औदूमिज,
पार्थिव) का प्रयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
इस विचारधारा को आगे बढाते हुये प्राणियों द्वारा प्राणी रक्षा करने की
संकल्पना इस चिकित्सा पध्दति में वर्णित है । आयुर्वेद में अष्टवर्ग में प्राणियों का
एकत्रित उल्लेख कर उनको चिकित्सकीय उप/देयता बताई गयी है । इस अष्टवर्ग में
गाय, मैंस, उंटनी, हथिनी, घोडी, भेद, सकरी, गधी इनका समावेश है । इनमें
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